क्या किसान आत्म हत्या का हल सम्भव है, और यदि है तो कैसे
क्या किसान आत्म हत्या का हल सम्भव है, और यदि है तो कैसे
भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 20 वर्षों में देश में
औसतन हर 36 मिनिट में एक किसान आत्महत्या का मामला दर्ज हुआ है.
दूसरे शब्दों में, जितनी देर में, एक नौकरीपेशा व्यक्ति, अपना लण्च खाकर निपटा, हर उतनी सी देर में, भारत के एक किसान ने आत्महत्या कर ली
यहां किसान और आत्महत्या दो अलग-अलग शब्दों का एकत्र प्रयोग होने से इसकी विकरालता सारे समाज को लपेट लेती है.
यदि हम दोनो शब्दों को प्रथक परिप्रेक्ष्य में देखें तो दोनो समस्यायें (पहली आत्महत्या व दूसरी किसान को गरिमा मयी जिन्दगी) आज उपलब्ध वैचारिक और तकनीकी उन्नति की मदद से पूर्णतया समाधान लायक हैं.
समाधान में जाने के लिये हम दोनो शब्दों को अलग-अलग करके विस्तार से प्रत्येक सूक्ष्मातिसूक्ष्म कारक का अन्वेषण करेंगे.
पहले लेते हैं शब्द किसान को.
भारतीय आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 10 के अनुसार आय की कुछ मदें करदाता की पूर्ण आय में सम्मिलित नहीं की जातीं, कृषि संबंधी आय उसमें से एक है.
ऐसा क्यों है पहिले इसे समझें.
यह एक ऐसा व्यवसाय है जहां सबसे बड़े पूंजीनिवेश पर आय होने की शाश्वतता नकारात्मक ही है. इसका मतलब है कि यदि जमीन, जो की इस व्यवसाय का अनिवार्य पहलू है; की कीमत का रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित ब्याज दर से किसी भी फसल की लागत निकाली जाय तो दुनिया में उस फसल का खरीददार मिलना ही असम्भव नहीं ती मुश्किल तो पक्का ही है.
एक साधारण उदाहरण लेते हैं.
शासन द्वारा इस वर्ष के लिये गैंहूं की खरीद दर रुपये 14 प्रति किलो.
रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित ब्याज दर 10 प्रतिशत
भारतीय कृषि विभाग के अनुसार गैंहू की राष्ट्रीय उत्पादकता 300 ग्राम प्रति वर्ग मीटर
पहिले देखें कि 300 ग्राम गैंहूं शासन को बैचने पर हमें मिलते हैं 14*.3 = रुपये 4.20 अब समझते हैं कि बैंक दर पर इसके लिये आवश्यक जमीन की लागत अर्थात 4.20*10 = 42 रुपये.
अर्थात 42 रुपये प्रति वर्गमीटर जगह की कीमत, क्या इस भाव में कौई भी बुद्धिमान मनुष्य जमीन खरीदकर मुफ्त मे मजदूरी, ढुलाई, पानी बिजली, लगाकर मौसम का जुआ खेलने को तैयार होगा? सिर्फ 10 प्रतिशत ब्याज के बराबर, अधिकतम कमाई के लिये?
सो आपको जिन्दगी भर, यह जुआ खेलने के लिये; आयकर से मुक्ति दे दी.
इस जुए को
साधारण भाषा में समझें तो; कौई ऐसी गतिविधि, जिसमें मस्तिष्क, परिस्थिती और प्रकृति के आपसी सामंजस्य से कुछ बायोमास उत्पादित करे वो किसान.
इस परिभाषा से वो मजदूर, जो दिन से ज्यादा की जवाबदारी, नहीं लेते को खेतिहर मजदूर के नाम से किसान वर्ग से अलग रखें.
साधारणतया कृषि सम्बन्धि कौई भी प्राकृतिक प्रणाली एक दिन के 8 घण्टे में अपना जीवनचक्र पूरा करके उपयोग लायक माल नहीं बनाती. (अपवाद मशरूम इत्यादि के बावजूद) हांलाकि यहां भी अन्य आदान एकत्र करके उसी दिन के 8 घण्टे में उत्पादन में अक्षम ही हेैं. किसान वर्ग में चौपिया, जो सिर्फ पशुऔं पर आधारित आजीविका चलाता है, का भेसल होने की वजह ही, किसान की असली दरिद्रता का कारण कैसे है?
थोड़ा इतिहास में जायेंगे.
इस देश में सीता का नाम कृषिकर्म से, जुड़ा हुआ है तो; कृष्ण का पशु उत्पादित मक्खन से.
इन दोनो नामों से जुड़े मिथकों में जायें तो पता चलता है कि एक राज्य में उपज न होने पर वहां का मुखिया (राजा जनक) स्वयम जाकर कृषिकर्म करता है.
अथुनातन प्रबन्थन की भाषा में (ठीक से चुनौती को समझने के लिए; नेतृत्व द्वारा जड़ से स्वत: अवलोकन, सूचना एकत्र करने और विश्लेषण का काम)first hand observation,information gathering and analysis by leadership to understand the challenge properly.
दूसरे मिथक में अनवरत बारिश से परेशान होकर गौवर्धन पर्वत को उंगली और लाठिय़ों के ऊपर उठाने की कहानी है.
यहां भी मुखिया समस्या का विश्लेषण करके बाड़ के प्रकोप से बचने के लिये, कृषि के साथ, डण्डे से हांके जा सकने लायक, पशुओं का पालन, और बारिश के समय, ऊंचे स्थानों की ओर प्रस्थान का मार्ग; अपनी तर्जनी की मदद से समाज को दिशानिर्देशित करता है.
इन दोनों आख्यानों से हम यहां क्या समझते हैं? कि प्रकृति और समाज की, चक्रियता एक अवश्यम्भावी और शाश्वत तथ्य है.
यह तथ्य इतिहास, किवदंति व जीवन के अनुभवों से जन के मन में बड़े आराम से मिथकों के रूप में जुढ़ चुका है.
और इसे आज के मुक्त बाजार के, परिप्रेक्ष में नवउद्दयम (स्टार्टअप), की भाषा में "बर्न" के नाम से जाना जा सकता है."बर्न" का मतलब होता है भविष्य के मुनाफे की प्रत्याषा में वर्तमान का बलिदान.
बाड़ या सूखा भी जिजिविशा (उद्दयमिता) के एक अनिवार्य अंग हैं. इनकी मदद से समाज को, अनवरत नये विचार, नये कलाकार, और नये आत्मविश्वास का संचरण मिलता है.
यहां एक तथाकथित व अनसमझा सिद्धांत:"सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट"(योग्यतम की उत्तरजीविता) जिसे तथाकथित प्रकृति विज्ञान का अनिवार्य गुण समझा गया है, की गहराई में जायेंगे.
एक उदाहरण लेते हैं. एक साथ जन्मे, पले-बड़े दो प्यारे से ह्रष्ट पुष्ट चूहे पास-पास सो रहे हैं. ऊपर समय के थपेड़ों से जर्जर पुराने कवेलू की छत से फट करके, एक काग महाराज, गरुड़झेप के अन्दाज में, उड़ान भरते हैं; और पट से एक टूटा कवेलू नीचे गिरा.
अब प्रकृति के गुरुत्वाकर्षण के नियमानुकूल जिस चूहे के उपर कवेलू गिरा उस खुशकिस्मत मूषक महाराज की इस भीड़ भरे प्रदूषित गन्दे माहौल से मुक्ति और कैलाशवास हैतु प्रयाण.
यहां दूसरा चूहा ट्रैडमिल पर ज्यादा प्रैक्टिस, और मल्टीविटामिन के भरपूर डौज़, लेने के कारण अपने साथी के साथ कैलाशवासी होने से वंचित रह गया ऐसा नहीं था. जिसके ऊपर कवेलू गिरा, उसे ही भवसागर से मुक्ति मिली.
यहां जान जाने, या बचने में, फिटनैस से, दूर-दूर तक कौई ताल्लुक नहीं था.
तो यहां प्रधान-कारक, प्रकृति का गुरुत्वकर्षण होने के बावजूद, दूसरे मूषक महराज की, जान बचाने में एक नया शब्द उठ कर आता है.
य़ह शब्द खुद तीन अलग-अलग शब्दों की परिभाषाऔं के मिलाप से बना है.
पहले हम समझेंगे वो कौन-कौन से तीन शब्द हैं?
पहिला शब्द है प्रकृति, दूसरा शब्द है, समय और तीसरा है, परिवेश.
जब हम प्राकृतिक नियम जो कि शाश्वत हैं, को समय जौकि सदैव चलायमान है, और परिवेश जो किसी भी पल विशेष में सुस्थिर है. (इसे हम स्टिल फोटो या स्थिर छवि के रूप में समझ सकते हैं)
यहां शाश्वत, चलायमान और स्थिर तीन गुणों को या प्रकृति, समय और परिवेश के संयोग से निर्मित शब्द है "पारिस्थितिकी".
अभी हमारे उदाहरण में दोनों चूहों की पारिस्थितिकीय भिन्नता के कारण एक चूहे की मृत्यु से दूसरे चूहे की जीवंतता में एक नयी चीज जुड़ गयी है जिसे वैज्ञानिकों ने नाम दिया है "डी. एन. ए."
यहां यह अनुभव जन्य ज्ञान जो कवेलू, कौआ, और साथी चूहे की मौत के संयोग से निर्मित हुआ चूहे की मस्तिष्कीय गतिविधि द्वारा आने वाली पीढियों में डी. एन. ए. के माध्यम से पहुंचेगा.
यहां विचारयौग्य तथ्य यह है कि; डी एन ए में सिर्फ यह गया है कि, कवेलू का टुकड़ा गिरने से मौत होती है, जो गुरुत्वकर्षण के बल से नीचे गिरता है.
अब यदि अगली पीढी के दो जुढवा चूहे सो रहे हैं, और इस बार कवेलू गिरने की जगह, नेताजी के चुनाव जीतने की खुशी में, छौड़ी गयी आतिशबाजी में से, एक जलता हुआ पटाखा, एक चूहे पर आकर गिरता है, तो डी एन ए का गुरुत्वाकर्षण का ज्ञान, यहां उसकी जान बचाने के काम नहीं आता. परन्तु दूसरे बचे हुए चूहे के, मस्तिष्क द्वारा इस पारिस्थितिकी का, मनौचित्रण होकर फिर अगली पीड़ी में पहुंचता है.
अस्तु यहां फिटैस्ट की जगह पारिस्थितिकीय अनुकूल व जागरूक ज्यादा समीचीन है, अन्यथा चूहे, मक्खी, मच्छर का आकार बड़कर आजतक डायनौसोर हो जाता और उमर लाखों वर्ष.
सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट? या सर्वाइवल ऑफ पारिस्थितिकीय जागरूक किसान?
अब तक हम पारिस्थितिकी का हल्का सा अर्थ समझ पाये हैं.
पर हम पारिस्थितिकी तंत्र को कैसे समझ सकते हैं?
आसानी से पारिस्थितिकी तंत्र की अवधारणा को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं।
अपना भौतिक शरीर एक पारिस्थितिकी तंत्र है।
यह कई सूक्ष्म वनस्पतियों और सूक्ष्म जीवों को त्वचा, बाल, नाखून पर बंसाये रहता है
इसमें चलने या किसी भी खतरे से बचाने के लिए पैर है।
आप को खिलाने के लिए और खाना अर्जित करने के लिये हाथ है
सभी अंगों के जैविक तंत्र, विशिष्ट कर्तव्यों और अपने शरीर के इच्छित कार्यों को कुशलता से चलाने के लिए ऊर्जा का प्रवेश द्वार मुँह है;
हम मान लेते हैं कि आप की उम्र 20 साल व वजन 50 किलो है.जोकि बराबर है 50,000 ग्राम या 5, 00, 00,000 (5 करोड़) मिलीग्राम शरीर के वजन के साथ (20x365x24x60) 1 करोड़ मिनट वय।
कल्पना कीजिये आपकी एड़ी में सिर्फ 5 मिलीग्राम वजन कांच का एक टुकड़ा ।
यहां 20 साल की उम्र के अपने शरीर की पारिस्थितिकी प्रणाली में कांच का यह टुकड़ा नया प्रवेशी है।
अब एक नगण्य कांच द्वारा अपने शरीर की पारिस्थितिकी तंत्र के सुचारू संचालन में क्या हुआ; एक करोड़ वे समय व एक करोड़ वे वजन ने आपको लंगड़ा कर दिया?
एड़ी में कांच की प्रविष्टि के कारण हमारी पूर्ववत दिनचर्या की कुशलता कम हो गयी
पारिस्थितिकी तंत्र का प्रभाव क्या है?
पारिस्थितिकी तंत्र में समय या स्थान के पैमाने पर एक करोड़वे भाग के बराबर विगृह भी परिस्थिती परिवर्तित करने में कैसे सक्षम है?
आओ एक उदाहरण लें.
कल्पना करें आप अमावस्या की अंधेरी रात में एक विशाल ग्रामीण इलाके में हैं।
अब आपने एक छोटी सी मोमबत्ती जलाई।
अब देखिये अंधकार पर इसका प्रभाव।
हम इन उदाहरणों से समझ सकते है कि पारिस्थितिकी तंत्र में किसी भी प्रकार की घुसपैठ या विकृति समय या स्थान के पैमाने पर एक करोड़ गुना अधिक प्रभावकारी हो सकती है।
कैसे पारिस्थितिकी प्रणालियां हमे प्रभावित करती हैं?
हम एक उदाहरण लेते हैं
सभी प्राणीयों के शरीर में और उसके चारों ओर सूक्ष्मवनस्पति एवम् सूक्ष्मजीवों का एक सूक्ष्मसंसार शामिल होता है।
एक स्मार्ट मानव के रूप में हम साबुन या कीटाणुनाशक के साथ हमारी त्वचा को साफ करते हैं और फिर क्या होता है जब एक 5 मिलीग्राम वजन का छोटा सा मच्छर हमें काटता है?
वही प्राणी अन्य वनस्पतियों या जीव-जंतुओं पर अपना पूरा जीवनकाल, मेजबान पर बिना कोई नकारात्मक प्रभाव डाले सामंजस्य पूर्वक बिता देता है.
हम हमारे पक्ष में पारिस्थितिकी की अवधारणा का कैसे उपयोग कर सकते हैं?
ऊपर के उदाहरण के साथ आप स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि वर्षा जल की एक बूंद भी यदि गंभीरता से उपयोग की जाय तो 1करोड़ गुना प्रभावकारी हो सकती है.
एक एकुलता मधुमक्खी का छत्ता अन्य बातों के बराबर रहने के बावजूद सामान्य से 600% उत्पादन बढ़ा सकता है या
एक साधारण जीवाणु अन्य सभी इनपुट के बराबर रहने के बावजूद सामान्य उत्पादन से 200% उत्पादन को बढ़ा सकता है या
जड़ क्षेत्र में केंचुओं की मौजूदगी 150% उत्पादन बढ़ाने मे सक्षम है।
यदि हम ऊपर के सिर्फ तीन कारकों को जोड़ (6 गुणा 2 गुणा 1.5) देते हैं तो बाकी सब कुछ के साथ 18 गुणा परिणाम हासिल कर सकते हैं
आबादी को, भूक से मरने के खतरे से, बचाने का काम किसान का.
किसान की जिन्दगी की तुलना एक पायलट से करें
पायलट की तनिक सी गलती हो जाने पर सैंकड़ों इन्सानों की जान का खतरा
खाली हवाई-जहाज ऊड़ा कर सीखने में, करोड़ों की कीमत के जहाज के बरबाद होने का खतरा तो है ही, साथ ही उड़ाना सीखने और सिखाने वाले की जान जाने का भी उतना ही बड़ा खतरा. पर उड़ाना तो सीखना ही है.
अभी पायलट, हवाई जहाज उड़ाना, हमारे अभिमन्यु जैसे, समझो कैसे भी सीख ही गया.
पर इस पायलट की तनिक सी गलती हो जाने पर सैंकड़ों इन्सानों की जान का खतरा तो है ही.
इधर चूंकि किसान, आदमीयों से भरे जहाज को लिये हवा में नहीं है सो; अकेले एक किसान की कैसी भी गलती से, कई इन्सानों के, एक झटके में मरने का खतरा तो नंही ही है.
परन्तु पायलट की खुद की जान और जहाज बनाने में लगी पूंजी की रक्षा के लिये
जवानों को, हवाई जहाज उड़ाना, सिखाने के लिये; एक मशीन होती है, जिसे कहते हैं सिमुलेटर.
इसमें तरह तरह की,वास्तविक परिस्थितियों का, काल्पनिक निरूपण होता है.
एक अच्छा पायलट, बनने को; इसमें अभ्यास जरूरी है.
दूसरी तरफ किसान और उसकी पूंजी जमीन पर. साधारण परिस्थिती मे जान जाने का,या जमीन रूपी पूंजी से हाथ धो बैठने का खतरा नहीं के बराबर.
लैकिन जैसे ही जमीन के अलावा बीज, खाद, कीटनाशक, ईंधन, बाहर के मजदूर, ट्रैक्टर इत्यादि मशीन, इस सब लागत पर सवाई या अधिक के हिसाब से ब्याज, अनिश्चित बाजार और मौसम का पू्ंजी की शाश्वतता पर खतरा सवार हुआ कि किसान को भी
सोते-सोते छप्पर फाड़कर, कुछ अच्छा मिलने की सम्भावना, उतनी है, जितनी बिना सिमुलेटर के सफल पायलट बनने की.
आज के महौल में कौई भी बिटिया का बाप, किसान से अपनी बिटिया का ब्याह करने को उतना ही उत्सुक है; जितना किसी किसान का बेटा, खेती को अपनी आजीविका बनाने में.
जब किसी काम में थोड़ा भी जौखिम होता है तो सरकार उससे राहत के लिये कुछ कानून बना डालती है.
जैसे एक बाईक चलाने से कौई दुर्घटना हो सकती है, तो चालक के लिये, ड्राइविंग लायसेन्स और थर्ड पार्टी बीमा ,वाहन चालक को अनिवार्य.
लैकिन इधर खुद सरकार, उसको चलाने वाले कृषिवेत्ता, और उन से पढ़ कर पीएच डी तक लिये तथाकथित नीति निर्धारक जिन्हें अच्छे से मालुम है उनकी शिक्षा की गहराई जिसके कारण बाप दादा की खेती छौड़कर खुद चाकरी करने लगे.
इन सबकी महती कृपा स्वरूप
पिछले साल, हमें झेलनी पड़ी, गैस, बिजली की बड़ती कीमत और प्रकृति की मार
सोना औसतन 2800 रुपये ग्राम, या 28 लाख रुपये, किलो.
बिजली ढाई रुपये युनिट, और पानी शायद दस पैसे लिटर.
प्रकृति ने पिछले 365 दिनों में, हर जवान को, पकड़ कर रखने लायक, दस लाख युनिट धूप ऊर्जा, और 30 लाख लीटर पानी दिया.
दूसरे शब्दों में कहें तो, कुदरत ने एक-एक किलो, सोने की ईंटे भेजीं; धूप और बारिश के, माध्यम से, हर भारतीय को.
प्रकृति अभी भी धूप दे रही है, और बारिश भी देगी ही.
प्रश्न है,
बिना जौखिम हम कैसे प्रकृति का दौहन करें?
यह हम समझ गये हैं कि
जौखिम खतम करने के लिये सिमुलेटर होता है.
क्या हमें हमारी परिस्थिति का अभ्यास सिमुलेटर में नही.करना चाहिये?
तो फिर देर कैसी? अभी शुरू करें नीचे के वीडियो से......